चार साहिबज़ादे
दसवें गुरू, गुरू गोबिंद सिंघ जी (1666-1708 ई.) ने 1676 ई. में बैसाखी वाले दिन गुरियाई की ज़िम्मेवारी संभाली। कौम की देखभाल की ज़िम्मेवारी निभाने के इलावा, आप जी ने शारीरिक हुनर और साहित्यक कार्यों के प्रति भी ख़ास ध्यान दिया। आप जी का काव्य रचना की ओर काफी रूझान था और आप जी के जीवन के प्रारम्भिक वर्ष इसी कार्य को पूरा करने में व्यतीत हुए। आप जी की बहुतात साहित्यक रचना पाउंटा साहिब के स्थान पर हुई जो कि आप जी ने यमुना नदी के तट पर बसाया। यहां आप जी ने अप्रैल 1685 में कुछ समय के लिए निवास किया था।
बड़े साहिबज़ादे साहिबजादा अजीत सिंघ
बड़े साहिबज़ादे साहिबजादा अजीत सिंघ पाउंटा साहिब के स्थान पर निवास के दौरान, गुरू गोबिंद सिंघ जी के सब से बड़े साहिबजादे, साहिबजादा अजीत सिंघ का जन्म माता सुंदरी जी की कोख से 26 जनवरी 1687 को हुआ। इसके अगले वर्ष ही गुरू साहिब वापिस अनंदपुर साहिब आ गए जहां साहिबज़ादे की परवरिश प्रवानित सिक्ख परम्पराओं के अनुसार होने लगी। बाबा अजीत सिंघ ने सिक्ख साहित्य, दर्शन शास्त्र एवं इतिहास का अध्ययन किया, और साथ ही घुड़सवारी, तलवारबाज़ी व तीरंदाज़ी जैसी र्निभीक कलाओं में शिक्षा प्राप्त
की। आप एक तंदरूस्त, बलवान, समझदार व जुझारू मुखिया बन कर सामने आए। प्रत्येक शाम, आप अपने छोटे भाई जुझार सिंघ को साथ ले कर, अपने मित्रों को एकत्र करते और दो गुट बना लेते। फिर आप दोनों गुटों के बीच तलवारों व तीरों के साथ नकली मुकाबले करते। कभी-कभी गुरू गोबिंद सिंघ जी भी अपने दोनों साहिबज़ादों की इन फौज़ी गतिविधियों को देखते। बाबा अजीत सिंघ एक बहादुर व वीर योद्धा थे। आप ने अल्प आयु में ही गुरू गोबिंद सिंघ की जंगों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और कई बार आप ने इन जंगों में अपनी बहादुरी के आश्चर्यजनक कौतुक दिखाये । कोई भी ख़तरा आप जी को अपने फ़र्ज को पूरा करने से डरा या रोक नहीं सकता था। 1699 ई. की बैसाखी वाले दिन, गुरू गोबिंद सिंघ जी ने अनंदपुर साहिब की पावन धरती पर सिक्ख कौम
को एक नयी रंगत दी ख़ालसा पंथ की सृजना की। इससे कौम को एक नवीन रूप प्रदान हो गया। गुरू साहिब के दोनों साहिबज़ादे -- बाबा अजीत सिंघ व जुझार सिंघ सहित हज़ारों ही श्रद्धालुओं ने 'खण्डे की पाहुल' धारण की। ख़ालसा पंथ की सृजना के फौरन बाद बाबा अजीत सिंघ की प्रतिभा की प्रथम परख हुई। पंजाब के उत्तर-पश्चिम के इलाके पोठोहार से आ रही सिक्ख संगत पर रास्ते में, अनंदपुर साहिब के नजदीक, नूह गांव के रंघड़ों ने हमला कर दिया व उन्हें लूट लिया। गुरू गोबिंद सिंघ जी ने बाबा अजीत सिंघ को सतलुज नदी के पार उस गांव में हमलावरों को सबक सिखाने के लिए भेजा। 13 मई 1699 को बाबा अजीत सिंघ की आयु केवल 12 वर्ष ही थी जब वह 100 सिक्खों का जत्था लेकर वहां गए और रंघड़ों को सज़ा देकर, संगत का सामान वापिस लेकर आये। इसके अगले वर्ष, आप जी को एक अहम कार्य सौंपा गया जब पहाड़ी राजाओं ने शाही फ़ौज के साथ मिल कर अनंदपुर पर
हमला कर दिया। साहिबजादा अजीत सिंघ को तारागढ़ किले की रक्षा की ज़िम्मेवारी सौंपी गयी जो कि हमले का प्रथम निशाना था। एक माहिर योद्धा, भाई उदे सिंघ के साथ मिल कर आप जी ने इस हमले को बाखूबी रोका। यह 29 अगस्त 1700 ई. को हुआ। इसके बाद आप जी ने अक्टूबर 1700 में निरमोहगढ़ के युद्ध में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 15 मार्च 1701 को, दड़प (मौजूदा सियालकोट ज़िला) से आ रही सिक्ख संगत को गूजरों और रंघड़ों ने रास्ते में लूट लिया । साहिबजादा अजीत सिंघ ने उन्हें सबक सिखाने के लिए एक सफल चढ़ाई की। एक बार किसी ब्राहमण ने गुरू गोबिंद सिंघ जी के पास आ कर शिकायत कर दी कि कुछ पठानों ने होशियारपुर के समीप, बस्सी में उसकी नव-विवाहित पत्नी को अपने कब्ज़े में ले लिया है। गुरू साहिब के निर्देश पर साहिबजादा अजीत सिंघ 100 घुड़सवारों को लेकर वहां पहुंचे और ब्राहमण की पत्नी को उनके कब्ज़े से छुड़ा कर ले आए। फिर उसे वापिस ब्राहमण के पास पहुंचाया गया और पठानों को बनती सज़ा दी गई। बस्सी के इस स्थान पर इस
घटना की याद में एक गुरूद्वारा भी सुशोभित है। गुरू गोबिंद सिंघ जी द्वारा ख़ालसा पंथ की सृजना करने पर बादशाह औरंगजेब बहुत नाखुश था। उसे यह बर्दाशत नहीं हो रहा था कि उसके राज्य में किसी को 'सच्चा पातशाह' कह कर संबोधित किया जाये, जैसे कि सिक्ख गुरू गोबिंद सिंघ जी को करते थे। उसने अपने जरनैलों को हुक्म कर दिया कि गुरू दरबार के बढ़ते प्रसार को किसी भी तरह रोका जाये। मुग़ल जरनैलों ने सिक्खों को अनंदपुर से बाहर निकालने के लिए हर जायज-नाजायज़ हथकंडे अपनाने शुरू कर दिये। मई 1705 में पहाड़ी राजाओं और मुग़ल सैनिको की संयुक्त फौज़ ने अनंदपुर साहिब की ओर कूच कर दिया और शहर के चारों ओर घेरा डाल लिया। गुरू साहिब और उनके सिक्खों ने कई महीनों तक उनकी ओर से किये जा रहे लगातार हमलों का बहुत बहादुरी के साथ सामना किया। यद्यपि इतने समय से सारे रास्ते बंद होने के कारण सहूलतों की ज़बरदस्त कमी हो चुकी थी। हमलावर भी अब थक चुके थे और उन्होंने गुरू साहिब व सिक्खों को अनंदपुर साहिब से निकल जाने के लिए सुरक्षित राह
देने का वायदा किया। अनंदपुर साहिब पर पड़ी किलेबंदी के इतने लम्बे समय दौरान, साहिबजादा अजीत सिंघ ने एक बार फिर अपनी बहादुरी एवं दृढ़ता के जौहर दिखाये। आखिर, जब 5-6 दिसंबर 1705 की रात्रि को, अनंदपुर साहिब से बाहर निकलना था तो आप को सब से पीछे चौकसी रखने की कमान सौंपी गई। हमलावरों ने सुरक्षित राह देने के अपने वायदों को तोड़ते हुए, उनके दस्ते पर हमला कर दिया, जिसका आप ने शाही टिब्बे के स्थान पर बाखूबी सामना किया। आप ने उन्हें तब तक उलझाऐ रखा जब तक भाई उदे सिंघ ने आकर कमान नहीं संभाल ली। फिर उदे सिंघ ने अकेले ही दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये। शहादत
पाने से पहले उस निधड़क योद्धा ने कईयों को मार गिराया। सरसा नदी में उस समय बाढ़ आयी हुई थी जब बाबा अजीत सिंघ ने अपने पिता, अपने छोटे भाई जुझार सिंघ और कुल डेढ़ सौ सिंघों के साथ सरसा नदी को पार किया। रोपड़ के रास्ते से आ रही एक फौज़ी टुकड़ी के अचानक हमले के कारण सिंघों की संख्या और भी कम हो गई। 6 दिसंबर 1705 को बचे हुए चालीस सिक्खों का यह दस्ता चमकौर पहुंच गया। इन्होंने वहां एक कच्ची गढ़ी में जा कर टिकाना कर लिया। इनके पीछे ही मलेरकोटला व सरहिंद से शाही फौज़ की टुकड़ियों, और उनके साथ ही | स्थानीय रंघड़ व गूजर हमलावर भी आ कर मिल
गये। इन सभी ने चमकौर की उस गढ़ी के आस-पास जबर्रदस्त घेरा डाल दिया। - 7 दिसंबर 1705 की सुबह को एक बे-मेल पर भयानक जंग की शुरूआत हुई। गुरू गोबिंद सिंघ जी के 'ज़फ़रनामा' में कहे अपने शब्दों के अनुसार केवल चालिस का लाखों को ललकारना। सिक्ख सिपाहियों ने असला व सामान ख़त्म होने पर पांच-पांच सिंघों का जत्था बना कर हमलावरों पर तलवारों व नेज़ों के साथ धावा बोलने का फैसला कर लिया। पांच सिक्ख सिपाहियों के पहले जत्थे ने शहीदी प्राप्त करने से पहले सैंकड़ों मुग़ल सैनिकों को मार गिराया। इसके बाद दूसरा व फिर तीसरा जत्था बड़ी फुर्ती के साथ जंग के मैदान में गया। उन्होंने भी इतने मुश्किल हालातों में उसी बहादुरी का सबूत देते हुए शहीदीयां पाई। इस घमासान लड़ाई को गुरू साहिब गढ़ी में
से स्पष्ट देख रहे थे और आगे की योजना बना रहे थे। साहिबजादा अजीत सिंघ ने आगे बढ़ कर गुरू गोबिंद सिंघ जी से मैदान-ए-जंग में जाकर लड़ने की आज्ञा मांगी। गुरू साहिब ने उन्हें आशिर्वाद दिया और सिक्ख योद्धाओं का एक जत्था उनकी अगुवाई में लड़ने के लिए भेज दिया। जैसे ही नौजवान साहिबज़ादे व उनके साथी गढ़ी में से बाहर निकले, उनके छोड़े गये जैकारों की गूंज “सति स्री अकाल" के रूप में दूर-दूर तक फैल गई। मुग़ल सिपाहियों ने साहिबज़ादे के चारों तरफ घेरा डाल लिया। उन्होंने सभी का डट कर सामना किया और उन पर तीरों की बौछाड़ कर दी। उन पर घेरा डाल रहे सिपाहियों को पीछे हटना पड़ रहा था, पर साथ ही अन्य सिपाही आगे की ओर बढ़ते चले आ रहे थे। बाबा अजीत सिंघ और उनके साथियों ने सभी का बड़ी दलेरी और सूझ-बूझ के साथ सामना किया परन्तु उनके तीर
खत्म होने की कगार पर पहुंच चुके थे। बाबा अजीत सिंघ ने घोड़े की चाल तेज़ कर दी और दुश्मनों के साथ लोहा लेने के लिए अपनी तलवार लहराते हुए उनके बीच पहुंच गये। दुश्मनों के एक सिपाही ने उनकी ओर निशाना लगा कर अपना नेज़ा बहुत ज़ोर से मारा। साहिबज़ादे ने उस हमले को तो रोक लिया परन्तु उनका घोड़ा गंभीर रूप से घायल हो गया। उन्हें नीचे अकेला देख कर दुश्मनों के सिपाहियों ने चारों ओर से उन पर हमला कर दिया। इस तरह 19 साल के साहिबजादा अजीत सिंघ इस घमासान लड़ाई में जूझते हुए शहीदी पा गए। उस स्थान पर अब गुरूद्वारा कतलगढ़ साहिब सुशोभित है जहां साहिबज़ादा अजीत सिंघ, और फिर अगले जत्थे की अगुवाई करते हुए साहिबज़ादा जुझार सिंघ ने शहादत पाई ।
साहिबजादा जुझार सिंघ
साहिबजादा जुझार सिंघ गुरू गोबिंद सिंघ जी के दूसरे साहिबजादे, साहिबजादा जुझार सिंघ ने माता जीतो जी की कोख से 14 मार्च 1691 को अनंदपुर की पावन धरती पर जन्म लिया। अपने बड़े भाई साहिबजादा अजीत सिंघ की तरह, साहिबज़ादा जुझार सिंघ ने भी धार्मिक साहित्य के साथ-साथ युद्ध कला की शिक्षा ग्रहण करनी शुरू कर दी। 1699 ई. में, आप 8 वर्षों के थे, जब आप ने खण्डे की पाहुल प्राप्त की। दिसंबर 1705 में दुश्मनों द्वारा अनंदपुर साहिब के चारों ओर भारी घेरा डाले जाने के कारण जब किला खाली करना पड़ा तो आप पंद्रह वर्ष के थे तथा एक निधड़क व बहादुर अनुभवी
नौजवान योद्धा बन चुके थे। हमलावरों के भारी मात्रा में पीछा करने के कारण तथा हर मुश्किल के बावजूद, आप ने अपने जत्थे के साथ 6 दिसंबर 1705 की रात्रि में बाढ़ प्रभावित सरसा नदी को पार किया और चमकौर पहुंचने में कामयाबी प्राप्त कर ली। रात्रि को कोई ख़ास आराम न करने के बावजूद, आप ने अगले दिन बड़ी बहादुरी के साथ उस गढ़ी पर लगातार हो रहे हमलों को रोके रखा जिसमें गुरू गोबिंद सिंघ जी व उनके चालीस सिंघों के साथ उन्होंने टिकाना किया हुआ था। जब सिक्ख सिपाहियों के पास असला व सामान ख़त्म होने लगा तो उन्होंने अपने आप को पांच-पांच के जत्थों में बांट कर, बाहर जा कर हमलावरों के साथ दो-दो हाथ करने का फैसला कर लिया। गुरू गोबिंद सिंघ जी अपने दोनों साहिबज़ादों को गढ़ी की उपरी मंज़िल पर ले गये। उस स्थान से मैदान-ए-जंग का पूरा दृष्य स्पष्ट नज़र आ रहा था।
दुश्मनों के हर हमले का सामना करने के लिये पूरी तैयारियां कर ली गई थी। सिक्ख सिपाहियों ने अपनी-अपनी कमान संभाल ली और साहिबज़ादे भी जंग के लिए पूर्णयता तैयार थे। हमलावरों के भारी दस्ते के मुकाबले सिक्खों की संख्या बहुत ही कम थी, परन्तु उनके हौंसले बहुत बुलंद थे। उन सभी के बीच में गुरू गोबिंद सिंघ जी की मौजूदगी ही मानो उनमें एक नई जान डाल रही थी। परमात्मा की बख़शिश से, वे दुश्मनों का सामना करने के लिए पूरी दृढ़ता व साहस के साथ डटे हुए थे। बड़े ही शांत व स्थिर भाव के साथ खड़े गुरू गोबिंद सिंघ जी बहुत ध्यान से जंग की योजनाबंदी करने में लगे हुए थे।
मैदान-ए-जंग में अपने बड़े भाई की अद्वितिय शहादत को देख कर, साहिबज़ादा जुझार सिंघ जो कि उस समय 15 वर्षों के ही थे, आगे आये और अपने गुरू पिता से अपने भाई के दिखाये रास्ते पर चलने की आज्ञा मांगी। गुरू गोबिंद सिंघ जी ने सत्य की उस लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए अपने साहिबज़ादों को प्रसन्नता सहित विदा कर दिया। दुनिया के इतिहास में ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती जहां सत्य की ख़ातिर, अन्याय के खिलाफ, क्रूर शासको के पैरों तले तड़पती जन-मानस को राहत दिलाने के लिए कोई ऐसी लड़ाई लड़ी गई हो। 7 दिसंबर 1705 को साहिबज़ादा जुझार सिंघ ने दिन के खत्म होने से पूर्व आख़िरी जत्थे की अगुवाई की। आप अपने साथियों सहित गढ़ी के द्वार से बाहर निकले और जैकारों की गूंज के साथ उन्होंने दुश्मनों को खुल कर ललकारा। सभी ओर “सति स्री अकाल” की गूंज छा गयी। दुश्मनों के सिपाही इस बात से हैरान
कि गुरू गोबिंद सिंघ जी ने अपने दूसरे साहिबज़ादे को भी कुर्बान होने के लिए भेज दिया था। भारी संख्या में दुश्मन उनकी ओर तेजी से बढ़े। साहिबजादा और उनके साथियों ने बड़ी दलेरी से, अपनी सारी ताकत लगा कर, उन सभी का सामना किया। सूर्य छिपते समय, साहिबजादा जुझार सिंघ ने भी उसी स्थान के समीप शहीदी पा ली जहां पहले उनके बड़े भाई ने शहादत का जाम पिया था। गुरू गोबिंद सिंघ जी अपने दोनों साहिबज़ादों द्वारा दिखाये बहादुरी के कौतुकों और उनके द्वारा दुश्मनों के खेमे में मचाई गई भगदड़ को बहुत ध्यान से देख रहे थे। उनकी अद्वितिय शहादतों को देख कर, गुरू साहिब ने अकाल पुरख के आगे शुक्राने में शीश झुका दिया।
छोटे साहिबज़ादे
साहिबज़ादा जोरावर सिंघ साहिबजादा फ़तिह सिंघ
साहिबज़ादा जोरावर सिंघ साहिबजादा फ़तिह सिंघ गुरू गोबिंद सिंघ जी के तीसरे साहिबज़ादे, बाबा जोरावर सिंघ का जन्म 17 नवंबर 1696 को माता जीतो जी की कोख से अनंदपुर साहिब में हुआ, और आप की आयु उस समय सिर्फ 9 वर्ष की थी जब 5-6 दिसंबर 1705 की रात्रि को अनंदपुर साहिब का किला खाली करना पड़ा। 5 दिसंबर 1700 में माता जीतो जी के परलोक गमन के पश्चात् माता गुजरी जी (गुरू तेग बहादर जी के महल) ने अपने पौत्रों ज़ोरावर सिंघ और उनके छोटे भाई फ़तिह सिंघ (जन्म 25 फरवरी 1699) की उच्च परवरिश की। ये दोनों साहिबज़ादे उस समय माता गुजरी जी के साथ ही थे, जब सरसा नदी को पार करते हुए उनका गुरू गोबिंद सिंघ जी से साथ छूट गया। दोनों साहिबज़ादों को लेकर माता गुजरी जी भीषण जंगलों और कंटीले धरातलों में से गुजरते गए। उन्हें रास्ते में कई जंगली जानवर भी मिले
परन्तु दोनों साहिबज़ादे बे-ख़ौफ़ दादी जी की संगत में, गुरूबाण का पाठ करते हुए, उन्हें पार कर गये। रास्ते में दादी जी उन दोनों को सिक्ख इतिहास में से चुनिंदा घटनाएं सुनाते गये जिससे रास्ता काफी आसान हो गया। उनका रसोईया गंगू, जो कि बाढ़ ग्रस्त नदी को पार करने में सफल हो गया था, उन्हें मोरिंडा के नज़दीक अपने गांव खेड़ी ( अब सहेड़ी, ज़िला रोपड़ ) ले गया। घर पहुंच कर उनके घोड़ों को बांधते हुए उसने माता जी के पास एक गठड़ी में कुछ आभूषण व नगदी पड़ी देख ली। यह देखते ही उसके मन में लालच आ गया। उसने न केवल रात को गठड़ी चोरी कर ली, बल्कि अपने जुर्म को छुपाने के लिए और सरकार से ईनाम के आश्य से उनके साथ धोखा करने के बारे में भी वह सोचने लगा। उसने यह सुना हुआ था कि सरहिंद के नवाब ने गुरू जी व उनके परिवारिक सदस्यों की गिरफतारी कराने वालों के लिए ईनाम की रकम का ऐलान किया हुआ है। इस सब के कारण उसके मन में एक विवाद सा चल रहा था अपने घर में गुरू जी के पारिवारिक सदस्यों को शरण देने के बारे में पता लगने पर पकड़े जाने का डर और दूसरी ओर ईनाम का लालच ।
आखिर वह लालच की पकड़ में आ गया और मोरिंडा के रंघड़ अधिकारी को अपने घर ले आया। 7 दिसंबर 1705 की सुबह को, चमकौर की गढ़ी में लड़ाई वाले दिन, साहिबज़ादा जोरावर सिंघ को साहिबज़ादा फ़तिह सिंघ तथा उनकी दादी माता गुजरी जी के साथ, मोरिंडा के अधिकारी जानी ख़ान व मानी ख़ान रंघड़ द्वारा हिरासत में ले लिया गया। रात को उन्हें वहीं कोतवाली में रखा गया। - दोनों साहिबज़ादों को उनकी प्यारी व ममतामयी दादी ने सिक्खों की बहादुरी के किस्से सुनाये, और साथ ही गुरू अर्जन देव जी और गुरू तेग़ बहादर जी की अद्वितिय शहादतों के बारे में विस्तार से बताया। अगले दिन उन्हें सरहिंद भेज दिया गया। रास्ते में उन्हें देखने के लिए भारी भीड़ एकत्र हो गई क्योंकि उनकी गिरफतारी की ख़बर दूर-दूर तक फैल चुकी थी। सभी लोग बहुत हैरान थे कि भोले-भाले छोटे साहिबज़ादों को उनकी पूज्नीय दादी के साथ क्यों गिरफतार कर लिया गया है। साहिबज़ादों के चेहरों पर बेबाकी एवं निर्भयता
के भाव को देख कर सभी के मुख से अपने आप ही निकल रहा था "बहादुर पिता के बहादुर बच्चे " । सरहिंद पहुंचने पर, उन्हें किले के एक सब से ठण्डे बुर्ज में रखा गया। गुरू साहिब के एक श्रद्धालु, भाई मोती राम मेहरा को जब पता चला कि दोनों साहिबज़ादों को उनकी दादी के साथ ठण्डे बुर्ज में भूखा रखा गया है, तो उसने शाही रोष की प्रवाह नही की और एक बड़ा ख़तरा उठाने का फैसला कर लिया। उसने ठण्डे बुर्ज पर अपनी सीढ़ी लगाई और छोटे साहिबजादों को दूध पिला कर ही वह वापिस आया। 9 दिसंबर 1705 को दोनों साहिबज़ादों को सरहिंद के फ़ौजदार, नवाब वज़ीर ख़ान के समक्ष पेश कर दिया गया। वह अपने एक साथी, मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद ख़ान के साथ अभी चमकौर से आया ही था। वज़ीर ख़ान ने दोनों साहिबज़ादों को इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए अमीरी व रूतबों के भरपूर लालच दिये, परन्तु साहिबज़ादों ने सभी को ठुकरा दिया।
उसने फिर उन्हें मौत की धमकी दी, परन्तु वे दोनों अडिग बने रहे। अन्त में मौत की सजा सुना दी गई। शेर मुहम्मद ख़ान इस पर भारी विरोध दर्ज किया कि दो मासूम बच्चों को इतनी बे-रहमी से नहीं मारा जा सकता और उसने वज़ीर ख़ान को ऐसे अमानवी कृत्य को अंजाम देने से रोका। वज़ीर ख़ान के एक मंत्री सुच्चा नंद ने अपनी वफादारी दिखाने और अपने मालिक की खुशी पाने के लिए बहुत ही ईर्ष्या भरी सोच का प्रक्टाव किया। उसने दोनों साहिबज़ादों को फ़ौरन मार देने की पैरवी करते हुए कहा, "सांप के बच्चे सांप ही होते हैं। इन्हें फूटने से पहले ही नष्ट करने देना चाहिए।" लेकिन शेर मुहम्मद ख़ान के मासूम बच्चों की जान बख़्शने सबंधी दिये गये 'हाअ के नारे' के कारण साहिबज़ादों को धर्म तबदीली के बारे में सोचने के लिए और समय दे दिया गया ।
साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंघ और उनके छोटे भाई, साहिबज़ादा फ़तिह सिंघ ने दो और सर्द रातें उस ठण्डे बुर्ज़ में अपनी दादी की गोद में बिताई। अगले दिन, शाही दरबार में जाने से पहले, माता गुजरी जी ने अपने दोनों साहिबज़ादों को सीने से लगाया, आशीष दी और दोनों को गुरू साहिबान के दर्शाये पवित्र असूलों को संभाले रखने के लिए प्रेरित किया। दोनों साहिबज़ादों ने ऐसा ही करने का वचन दिया और खुशी-खुशी अपनी दादी से विदा ली। उन दोनों को नवाब के सामने पेश किया गया। शाही दरबार के द्वार पर पहुंचने पर उन्होंने देखा कि वहां का बड़ा दरवाज़ा बंद कर दिया गया है और अंदर जाने के लिए एक छोटा सा खिड़कीनुमा द्वार ही खुला रखा गया है। दोनों साहिबज़ादे खेली जा रही इस चाल को झट से भांप गये। उन्होंने
पहले अपने पांव दरवाज़े के अंदर दाखिल किये और फिर बिना अपना सिर झुकाये, उस छोटे से दरवाज़े से कूद कर अंदर दाखिल हो गए। दरबार में दाखिल होते ही दोनों ने गर्ज कर ज़ोरदार फ़तिह बुलाई : वाहिगुरू जी का ख़ालसा ॥ वाहिगुरू जी की फ़तह ॥ दरबार में बैठे सभी लोग उन दोनों की निडरता से बहुत प्रभावित हुए। नवाब वज़ीर खान ने उन दोनों को फिर लालच दिये कि वे जो भी कहेंगे, उनको दिया जायेगा अगर वे अपना धर्म तबदील कर लेते हैं। यह सुनते ही दोनों साहिबज़ादे एकदम गर्ज पड़े, “हमें किसी दुनियावी ऐशो-आराम की ज़रूरत नहीं । हम किसी कीमत पर भी अपने धर्म को नहीं छोड़ेंगे। " नवाब ने उन्हें फिर समझाते हुए कहा, "तुम अभी छोटे और मासूम हो। अभी तुम्हारे खेलने और आनंद मानने की उम्र है। अगर तुम हमारी सलाह मान लेते हो तो तुम अपनी मर्ज़ी के अनुसार दुनिया के सभी सुख पाओगे और जन्नत में भी आनंद मानोगे। " परन्तु दोनों छोटे साहिबज़ादे अपने धर्म की रक्षा के लिए हर कुर्बानी देने के लिए पूरी तरह से तैयार थे। साहिबज़ादा जोरावर सिंघ ने निध ड़क हो कर कहा, “हम अन्याय और जुल्म के ख़िलाफ लड़ रहे हैं। हम गुरू गोबिंद सिंघ जी के पुत्र, गुरू तेग बहादर
जी के पौत्र और गुरू अर्जन देव जी के वंशज हैं। हम उनके दर्शाये मार्ग पर ही चलेंगे। हम अपने धर्म की रक्षा के लिए हरेक कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। " उसी समय दीवान सुच्चा नंद ने साहिबज़ादों के पास जा कर कहा, अगर तुम्हे छोड़ दिया जाये तो तुम कहां जाओगे ?" साहिबज़ादा ज़ोरवर सिंघ ने झट जवाब दिया, "हम जंगलों में जाऐंगे, कुछ सिक्खों को एकत्र करेंगे, अच्छे घोड़ों का प्रबंध करेंगे और फिर वापिस आकर तुम्हारा और तुम्हारी फ़ौज़ का मैदान-ए-जंग में सामना करेंगे। " दीवान सुच्चा नंद को यह जवाब सुन कर कड़ा झटका लगा और उसने नवाब से कहा, "जनाब, ये दोनों बच्चे बड़े होकर
सरकार के विरूद्ध विद्रोह करेंगे । इसीलिए इन्हें तुरन्त सज़ा दे देनी चाहिए और छोड़ना नहीं चाहिए।" दोनों छोटे साहिबज़ादे बहुत ही आनंद- प्रसन्न थे, एक दूसरे से निधड़क हो कर बातें कर रहे थे और शाही दरबार की कार्यवाही से बिलकुल बेखौफ थे। दरबार में मौजूद लोग बहुत हैरान हो रहे थे कि उन दोनों के चेहरों पर किसी किस्म के खौफ या हैरानी के कोई भाव नहीं थे, क्योंकि यह उनके लिए ज़िंदगी और मौत का स्वाल था। परन्तु इस सब के बावजूद वे अडोल बने रहे और आख़िर 11 दिसंबर 1705 को, इन दोनों को जीवित ही दीवारों में चिनवाने का हुक्म जारी कर दिया गया। इन दोनों ने बिना किसी
शिकन या व्याकुलता से सज़ा को सुना, जबकि सज़ा के बारे में सुनते ही दरबार में मौजूद सभी लोगों को बहुत भारी धक्का लगा। वहां मौजूद मलेरकोटला के नवाब, शेर मुहम्मद ख़ान ने उस मौत की सज़ा के ख़िलाफ अपील की, कि इतनी भारी सज़ा के लिए ये बच्चे अभी बहुत छोटे हैं और पिता के किसी कार्य के लिए इन बच्चों को किसी हाल में ज़िम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। परन्तु नवाब वज़ीर ख़ान ने उनके उठाये गये एतराज़ को नज़र अंदाज़ कर दिया। इसके बाद दोनों साहिबज़ादों को वापिस बुर्ज़ में भेज दिया गया। उन दोनों ने अपनी दादी को शाही दरबार में हुई कार्यवाही के बारे में बताया। दादी ने अपने पौत्रों को गले से लगा लिया और उनकी ओर से उठाये गये बहादुरी भरे कदम के लिए उन्हें शाबाशी दी। साथ ही उन्होंने
साहिबज़ादों को प्रोत्साहित करते हुए कहा, "तुम दोनों ने अपने सत्कारित दादा जी और बहादुर पिता की आन-बान को वाकई में बरकरार रखा। वाहिगुरू तुम्हारे अंग-संग रहे। " अगले दिन फिर दोनों साहिबज़ादों को नवाब के दरबार में ले जाया गया। नवाब ने उन दोनों को एक बार फिर इस्लाम कबूल करने के लिए कहा। दोनों साहिबज़ादों ने निधड़क हो कर कहा, "हम कभी भी अपने धर्म को तिलांजलि नहीं देंगे। हमारे लिए मौत का कोई मायने नहीं ।" उनका यह जवाब सुन कर नवाब बहुत ही हैरान हुआ। धर्म परिवर्तन करने के लिए फिर से मना करने पर दोनों छोटे साहिबज़ादों को उस जगह ले जाया गया जहां दीवार चिनवाई जा रही थी। उन दोनो को एक दूसरे के बिलकुल साथ खड़ा कर दिया गया। वहां मौजूद काज़ी ने उन पर बजुत ज़ोर डाला कि वे इस्लाम धर्म कबूल कर लें और अपनी ज़िंदगी को इतनी जल्दी
ख़त्म न करें। यहां तक कि जल्लादों ने भी उन्हें काज़ी की बात मान लेने के लिए कहा परन्तु दोनों साहिबज़ादे अपने फैसले पर पूरी तरह दृढ़ बने रहे। दोनों ने सहजता से जवाब दिया, "हम अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे। मौत हमे डरा नहीं सकती । " इसके बाद दोनों ने गुरूबाणी का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार में ईंटें लगनी शुरू हो गई। कहा जाता है कि जैसे ही दीवार उनके मुख तक पहुंची, वह गिर गई। ऐसे प्रतीत हुआ जैसे बनाई जा रही दीवार अचानक ढह गई और साथ ही दोनों साहिबज़ादे बेहोश हो गये। उनके होश में आने पर, एक बार फिर उन्हें इस्लाम कबूल कर लेने के लिए कहा गया। इस बार फिर इन्कार करने पर, साहिबज़ादा जोरावर सिंघ और साहिबज़ादा फतिह सिंघ को शहीद कर दिया गया। वृद्ध माता गुजरी जी, जिन्हें पूरा समय बुर्ज़ में रखा गया था, यह
ख़बर मिलते ही अकाल चलाना कर गये। अपने बहादुर पौत्रों के साथ ही दादी ने भी अद्वितीय शहादत दे दी। इस ख़बर से पूरे शहर में एक सनसनी फैल गई। सभी इस घिनौने कारनामे से बहुत हैरान थे। सभी गुरू गोबिंद सिंघ जी के छोटे साहिबज़ादों के साहस और दृढ़ता की भरपूर प्रशंसा कर रहे थे। सरहंद के एक अमीर व्यापारी, सेठ टोडर मल ने अगले दिन तीनों मृत शरीरों का अंतिम
संस्कार कर दिया। इसके लिए नवाब वज़ीर ख़ान एक शर्त पर राज़ी हुआ कि वह उस स्थान के लिए रकम की अदायगी करे जहां संस्कार किया जाना है। यह शर्त रखी गई कि जितनी जगह संस्कार के लिए ज़रूरी है, उतने स्थान को सोने की मोहरों के साथ ढक दिया जाये। सेठ टोडर मल ने उस जगह का चुनाव किया और उसके ऊपर सोने की मोहरें बिछा कर वह स्थान प्राप्त कर लिया। गुरू गोबिंद सिंघ जी के शहीद हुए दोनों छोटे साहिबज़ादों का संस्कार उनकी दादी मां के साथ पूरे सत्कार के साथ कर दिया गया। दुनिया के इतिहास में ऐसी मिसाल कहीं नहीं मिलती जिस में इतने छोटे बच्चों ने शहादत प्राप्त की हो। साहिबज़ादा जोरावर सिंघ उस समय केवल 8 वर्षों के थे और साहिबज़ादा फतिह सिंघ की आयु छह वर्ष से भी कम थी। इन दोनों ने ज़ालिम हकूमत के अन्याय के नीचे दबने की बजाए दीवारों में चिनवाये
जाना मंजूर किया। ये दोनों ही अपने धर्म पर दृढ़ और अडोल बने रहे। यहां तक कि, जब इन दोनों को फुसलाया और वरगलाया जा रहा था, और ख़तरनाक नतीजों से डराया जा रहा था, दोनों छोटे साहिबज़ादों ने बड़ी दलेरी के साथ जवाब दिया, "तुम्हें शायद हमारे अमीर विरासत के बारे में अभी पता नहीं है। हमारे गुरू- घर में, किसी भी तरह की विपत्ति आने पर भी अपने धर्म में मज़बूत रहने की परम्परा रही है। " यह घटना सरहंद के पुराने शहर के नज़दीक, फ़तिहगढ़ साहिब के स्थान पर हुई। इस स्थान पर मौजूदा समय में चार गुरूधाम सुशोभित हैं। प्रत्येक वर्ष 25 से 28 दिसंबर तक यहां इन शहीदों की पवित्र याद में ' जोड़ - मेले' सजाये जाते हैं। गुरू गोबिंद सिंघ जी उस समय माछीवाड़े के जंगलों में थे जब आप जी को छोटे सहिबज़ादों की शहादत की ख़बर प्राप्त हुई। यह सुनते ही आप जी ने अपने तीर की नोक से एक पौधे की जड़ को उखाड़ते हुए ऐलान कर दिया कि यह अब भारत में मुगल राज्य के खात्मे का कारण बनेगा। और आप जी ने बादशाह औरंगज़ेब को लिखा : इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता जब कोई गीदड़ अपनी चालाकी से, फ़रेब
से, शेर के दो बच्चों को मारने में सफल हो जाता है, क्योंकि शेर अभी बदला लेने के लिए जीवित है। साहिबज़ादों की शहादत की ख़बर से पूरे देश में एक रोष की लहर फैल गई। क्योंकि दोनों साहिबज़ादों को सरहंद के नवाब वज़ीर ख़ान के हुक्मों से बड़ी बेरहमी के साथ शहीद किया गया था, इसी कारण से सरहिंद उस समय सिक्खों की आंखों में खटकने लगा। नवंबर 1708 में गुरू गोबिंद सिंघ जी के नांदेड़ में ज्योति- जोति समाने के बाद, बाबा बंदा सिंघ बहादर (1670-1716 ई.) की अगुवाई में सिक्खों ने सरहंद पर भारी हमला कर दिया। 12 मई 1710 को चपड़चिड़ी के मैदान में हुई घमासान लड़ाई में मुग़ल फ़ौज को जड़ से उखाड़ दिया गया और वज़ीर ख़ान को मार दिया गया। सिक्खों ने 14 मई को सरहंद पर कब्ज़ा कर लिया। अपने चार साहिबज़ादों की इन शहादतों का ज़िक्र करते हुए गुरू गोबिंद सिंघ जी ने सिक्खों को संबोधन करते हुए कहा : इन पुत्रन के सीस पर, वार दीये सुत चार। चार मुऐ तो किआ हुआ, जीवत कई हज़ार । चार साहिबज़ादों की इस अद्वितीय शहादत के कारण ही इन चार साहिबज़ादों को सिक्खों द्वारा की जाने वाली अरदास में नित्य-प्रति याद किया जाता है।